Thursday, May 31, 2012

पीढ़ियां गुजर गईं, मुकदमा जारी है...

न्याय में देरी, अन्याय है (Justice delayed is justice denied) न्याय के क्षेत्र में प्रयोग किया जाने वाली लोकप्रिय सूक्ति है। इसका भावार्थ यह है कि यदि किसी को न्याय मिल जाता है किन्तु इसमें बहुत अधिक देरी हो गयी हो तो ऐसे 'न्याय' की कोई सार्थकता नहीं होती। यह सिद्धान्त ही 'द्रुत गति से न्याय के अधिकार' का आधार है। यह मुहावरा न्यायिक सुधार के समर्थकों का प्रमुख हथियार है। वहीं न्यायिक सुधार से आशय किसी देश की न्यायपालिका का राजनीतिक तंत्र की सहायता से पूर्णतः या आंशिक परिवर्तन करना है। न्यायिक सुधार, विधिक सुधार का एक हिस्सा है। विधिक सुधार में न्यायिक सुधार के साथ-साथ कानूनी ढांचे में परिवर्तन, कानूनों में सुधार, कानूनी शिक्षा में सुधार, जनता में विधिक जागरूकता लाना, न्याय का त्वरित एवं सस्ता बनाना आदि भी शामिल हैं। न्यायिक सुधार का लक्ष्य न्यायालयों में सुधार, वकालत मे परिवर्तन, दस्तावेजों का रखरखाव आदि सम्मिलित है। न्यायिक संस्था और विधि का शासन आधुनिक सभ्यता और लोकतांत्रिक शासन की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर अपना देश न्यायिक मोर्चे पर सब-कुछ ठीक नहीं रख पा रहा। मुकदमों की संख्या बढ़ रही है, जनसंख्या की तुलना में जजों के पद कम हैं और उनमें से भी तमाम रिक्त पड़े हैं। हाल यह है कि अपने पिता के जीवनकाल में मुकदमा लड़ने का दायित्व संभालने वाला बच्चा, पहले जवान होता है और फिर बूढ़ा लेकिन मुकदमा जारी रहता है। कभी-कभी तो यही मुकदमा कई पीढ़ियों तक भी अंजाम तक नहीं पहुंचता। लंबित मुकदमे ख़ुद सरकारी आंकड़ो के मुताबिक देश की अदालतों के समक्ष 2 करोड़ 60 लाख से ज़्यादा मुक़दमे लंबित हैं। इनमें से कुछ मामले तो आधी सदी से भी ज़्यादा पुराने हैं। सरकार की लापरवाही और उदासीनता का ही नतीजा है कि आज की तारीख में सर्वोच्च न्यायालय में हजारों याचिकाएं लंबित हैं। उच्च न्यायालयों में भी यही हाल है। यहां पांच लाख 30 हजार याचिकाएं तो वह हैं जो 10 से ज्यादा वर्षों से लंबित हैं। निचली अदालतों में तो स्थिति और भी बेकाबू है। वहां तो लंबित मामलों की संख्या करोड़ों में है। अकेले दिल्ली के सत्र न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या 18786 है, जिसमें अन्य अधीनस्थ अदालतों की संख्या शामिल नहीं है। लंबित मामलों की स्थिति इतनी खराब है कि सबसे नए बने राज्यों में एक झारखण्ड में निचली अदालतों में आरोपी की पुलिस रिपोर्ट न सौंपने की वजह से 75 हजार मामलों पर अदालती कार्रवाई आगे नहीं बढ़ पा रही। यहां ढाई लाख से अधिक लंबित मामले हैं। देश में सर्वाधिक मुकदमे मोटर दुर्घटना और औद्योगिक विवादों से संबंधित हैं। देश में इन दोनों प्रकार के मुकदमों के निपटारे के लिए न्यायालयो की स्थापना करने का काम राज्य सरकारों का है लेकिन राज्य सरकारों ने इस के लिए पर्याप्त संख्या मे न्यायालय ही स्थापित नहीं किए हैं। इस तरह के अनेक न्यायालयों में न्यायाधिशों की नियुक्ति समय से नहीं की जाती है और वे लम्बे समय तक खाली पड़े रहते हैं। नतीजा यह होता है कि लंबित मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती जाती है। लंबित मुकदमों का आंकड़ा सर्वोच्च न्यायालय में कुल 56,304 मुकदमे लंबित हैं। इस न्यायालय में एक साल तक पुराने मुकदमों की कुल संख्या 19,968 हैं। अदालत के अपने विश्लेषण के मुताबिक इस लिहाज से पहले से लंबित मुकदमों की तादाद 36,336 हैं। देश के 21 उच्च न्यायालयों के आंकड़े दर्शाते हैं कि उनके पास 43,50,868 मुकदमे लंबित हैं। इनमें 34,34,666 दीवानी मामले और 9,16,202 फौजदारी मामले शामिल हैं। इन आंकड़ों का बढिय़ा पहलू यह है कि कुछ उच्च न्यायालयों में जितने नये मामले आए हैं, उनसे कहीं ज्यादा संख्या में पुराने मुकदमों का निपटारा किया गया है। इस वजह से लंबी अवधि के दौरान लंबित मुकदमों की संख्या घटेगी। जिन उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या घट रही है, उनमें पटना (-3.80 फीसदी), दिल्ली (-1.78 फीसदी), गुवाहाटी (-1.42 फीसदी), गुजरात (-0.76 फीसदी) और छत्तीसगढ़ (-0.50 फीसदी) शामिल हैं। बाकी बचे उच्च न्यायालयों में जितने पुराने मुकदमों का निपटारा किया गया, उनसे कहीं ज्यादा संख्या में नये मामले आए। ऐसे अदालतों में कर्नाटक (+5.06 फीसदी), आंध्र प्रदेश (+2.92 फीसदी), मद्रास (+2.37 फीसदी) और सिक्किम (+12.96 फीसदी) प्रमुख हैं। राज्यों के अधीनस्थ न्यायालयों में भी निपटाए गए पुराने मुकदमों की संख्या और नये मामलों के आंकड़े मिलेजुले हैं। इन न्यायालयों में कुल 2,76,70,417 मुकदमे लंबित हैं, जिनमें से 78,34,130 दीवानी और 1,98,36,287 फौजदारी मामले हैं। खुशी की बात है कि कुछ राज्यों की अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कम (नये मुकदमों की तुलना में ज्यादा पुराने मुकदमों का निपटारा) हो रही है। महाराष्ट्र में हालांकि 194 न्यायाधीशों की कमी है, लेकिन वहां लंबित मुकदमों की संख्या में 1.72 फीसदी की गिरावट आई है। इसी तरह दिल्ली में 5.60 फीसदी, मिजोरम में 14.54 फीसदी, तमिलनाडु में 1.26 फीसदी और चंडीगढ़ में 2.68 फीसदी लंबित मुकदमे घटे हैं।देश के सभी जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या 0.44 फीसदी बढ़ी है। न्याय पाना मूल अधिकार सुप्रीम कोर्ट ने न्याय पाने के अधिकार को मूल अधिकार बताते हुए अदालत जाने के अधिकार को इसका हिस्सा माना है। जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर 31 जनवरी 2012 को दिए निर्णय में शीर्ष अदालत ने कहा है कि भ्रष्टाचार मुक्त समाज में रहना आम जनता का मूल अधिकार है इसलिए उसे हासिल करने के लिए अदालत में जाना और न्याय प्राप्त करना भी उस मूल अधिकार का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट के सामने पहला प्रश्न यह था कि भ्रष्टाचार के मामले में क्या आम आदमी को अदालत जाने का अधिकार है? सरकार की ओर से इसका विरोध किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में सरकार के तर्क को नकारते हुए शिवनंदन पासवान बनाम बिहार राज्य के मुकदमे का हवाला देते हुए कहा कि भ्रष्ट लोकसेवकों के खिलाफ मुकदमा दायर करना न्याय पाने के संवैधानिक अधिकार का हिस्सा है। जब कोई आम आदमी किसी भ्रष्ट लोकसेवक के खिलाफ मुकदमा दायर करना चाहता है तो उसे केवल किसी के व्यक्तिगत राग-द्वेष से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। इसको इस तरह से समझने की जरूरत है कि इस कार्यवाही के माध्यम से समाज में कानून के शासन को बनाए रखने की कोशिश की जाती है और इस तरह के प्रयासों को हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार निरोधी कानून की धारा 1988 की धारा 19 में कहा गया है कि लोकसेवकों के खिलाफ मुकदमा दायर करने से पहले सरकार की अनुमति आवश्यक है। अदालत ने अपने निर्णय में अटार्नी जनरल द्वारा रखे गए तथ्यों का जिक्र करते हुए कहा कि पिछले एक वर्ष में लोकसेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में कार्रवाई की अनुमति के 319 आवेदन किए गए, जिनमें से 126 पर अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है। कोर्ट ने कहा कि अदालत को यह तय करना जरूरी है कि वह कानूनी उपबंधों को आंख बंद करके मान ले या न्याय और कानून के शासन का सम्मान करते हुए इसमें सकारात्मक दखलंदाजी करे ताकि आम आदमी का राज्य से भरोसा न उठे। न्यायाधीशों की संख्या बेहद कम देश में न्यायाधीशों की संख्या देश की आबादी और लंबित मुकदमों के अनुपात में बहुत कम है। इस बात का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जहां अमेरिका में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर 111 न्यायाधीश नियुक्त हैं वहीं भारत मे इन की संख्या केवल 11 है। इस तरह हम अमेरिका के मुकाबले केवल दस प्रतिशत न्यायाधीशों से काम चला रहे हैं। विधि आयोग ने 31 जुलाई 1987 को दी अपनी 120वीं रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि दस लाख की आबादी पर न्यायाधीशों की संख्या 10.5 से बढ़ाकर 50 की जानी चाहिए। उच्च न्यायालयों में जजों की संख्या के लिए प्रत्येक तीन वर्ष में पुनरावलोकन किया जाता है और मुकदमों के दर्ज होने और निपटारा किए जाने की संख्या के आधार पर समीक्षा की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऑल इंडिया न्यायाधीश एसोसिएशन व अन्य बनाम भारत संघ व अन्य के प्रकरण में पारित निर्णय में केन्द्र और राज्यों को निर्देश दिया था कि वे प्रति दस लाख आबादी पर न्यायाधीशों के 10.5 से 13 तक के तत्कालीन अनुपात को शीघ्रता से 50 तक बढ़ाएं। इसके बाद केन्द्र ने सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना की कि इस निर्देश को कम से कम केंद्र सरकार की जिम्मेदारी को कार्यभार और मुकदमों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया जाए। कहा जाता है कि मुकदमों के निपटारे की गति बढ़ानी चाहिए। लेकिन बिना न्यायाधीशों और न्यायालयों की संख्या में वृद्धि किए यह किसी प्रकार से संभव नहीं है। एक मुकदमे में सुनवाई सिर्फ न्यायाधीश कर सकता है। इस के लिए उसे पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। जिस में समय लगना स्वाभाविक है। गवाहों के बयान दर्ज करने की गति को तो किसी प्रकार से नहीं बढ़ाया जा सकता है। इस तरह मुकदमों के निपटारे के लिए सारा दबाव न्यायाधीशों और वकीलों पर बनाया जाता है और उस के खराब नतीजे सामने आ रहे हैं। हड़बड़ी में मुकदमों के निर्णय किए जाते हैं जो गलत होते हैं और उनसे हमारी न्याय व्यवस्था की साख गिरती है। विभिन्न अदालतों में जजों के रिक्त पद देश भर के 21 उच्च न्यायालयों में 279 पद खाली हैं। इन न्यायालयों में मंजूर किए गए पदों की कुल संख्या 895 है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 160 न्यायाधीश होने चाहिए लेकिन वहां महज 69 न्यायाधीश ही हैं। केवल हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में 11 न्यायाधीशों का पूरा कोटा है। सिक्किम उच्च न्यायालय में केवल एक न्यायाधीश है, जबकि वहां तीन न्यायाधीश होने चाहिए। सौभाग्यवश ऐसे मुकदमों की संख्या केवल 60 है और एक साल में केवल 30 ऐसे नये मुकदमे लंबित हुए हैं जिन्हें एकल न्यायाधीश को निपटाना है लेकिन गुजरात, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालयों की स्थिति ज्यादा खराब है। गुजरात उच्च न्यायालय में 42 न्यायाधीश होने चाहिए, जहां 20 रिक्तियां हैं, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में कुल 68 न्यायाधीश होने चाहिए, लेकिन वहां केवल 20 न्यायाधीश हैं। इसी तरह कलकत्ता उच्च न्यायालय में महज 17 न्यायाधीश हैं, जबकि वहां 58 न्यायाधीश होने चाहिए और राजस्थान उच्च न्यायालय में 40 न्यायाधीशों की जरूरत है, जबकि वहां सिर्फ 13 न्यायाधीशों से काम चल रहा है। जिला और अधीनस्थ अदालतों के आंकड़े भी समान रूप से चिंताजनक हैं। इन अदालतों में कुल 18,008 पद मंजूर हैं, जबकि 3,634 पद खाली पड़े हैं। गुजरात में 816 न्यायाधीशों की और जरूरत है, अभी वहां केवल 863 न्यायाधीश हैं। बिहार में 681 न्यायाधीश हैं, जबकि वहां 1,666 न्यायाधीशों की दरकरार है। उत्तर प्रदेश में कुल 1,897 न्यायाधीश कार्यरत हैं और वहां 207 रिक्तियां हैं। पश्चिम बंगाल में कुल 146 न्यायाधीशों की जरूरत है। ऐसे राज्य एवं केंद्रशासित प्रदेशों की संख्या केवल दो हैं, जहां जरूरत के मुताबिक पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश हैं-अरुणाचल प्रदेश और चंडीगढ़। दस वर्षों में एक लाख जजों की जरूरत सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में 4,30,000 लोग जेलों में बंद हैं, जिन में से तीन लाख केवल इसलिए बंद हैं कि उनके मुकदमे का निर्णय होना है। 2007 में यह संख्या केवल 2,50,727 थी। केवल तीन वर्षों में विचाराधीन बंदियों की संख्या में 50,000 का इजाफा हो गया। इन विचाराधीन बंदियों में से एक तिहाई से अधिक 88,312 अनपढ़ हैं, इन में माध्य़मिक स्तर से कम शिक्षित बंदियों की संख्या जोड़ दी जाए तो यह संख्या विचाराधीन बंदियों की कुल संख्या का 80% (1,96,954) हो जाएगी। 2007 में विचाराधीन बंदियों की कुल संख्या 2,50,727 थी जिसमें से 1891 पांच वर्ष से भी अधिक समय से बंद थे। इनमें ऐसे बंदी भी सम्मिलित हैं कि जिन पर चल रहे मुकदमे में जितनी सजा दी जा सकती है, उससे कहीं अधिक वे फैसले के इन्तजार में जेल में रह चुके हैं। 52 हजार से अधिक बंदी ऐसे हैं जिन पर हत्या करने का आरोप है। मुकदमों की बढ़ती संख्या से अनुमान लगाया जा रहा है कि आगामी 10 वर्ष में देश में 10 लाख जजों की आवश्यकता होगी। पांच हजार करोड़ का आवंटन 13 वें वित्त आयोग ने देश के विभिन्न राज्यों की अदालतों में वर्षों से लंबित मामलों के निष्पादन के लिए 5000 करोड़ रुपयों का आवंटन किया है जो 2010 से 2015 के दरम्यान खर्च होना है। इस राशि का इस्तेमाल सुबह और शाम चलने वाली अदालतों के अलावा स्पेशल अदालतों में चल रहे लंबित केसों के निपटारे के लिए किया जाना है। एक अनुमान के अनुसार इस राशि से लंबित केसों का निपटारा 5 सालों के दौरान किया जा सकेगा। इसके अलावा वैकल्पिक समस्या के समाधान के लिए 600 करोड़ रुपया दिया गया है। 100 करोड़ रुपयों का आवंटन लोक अदालतों के लिए किया गया है। 150 करोड़ रुपया वकीलों और विभिन्न न्यायालयों में काम करने वाले अधिकारियों को मुहैया कराया गया है। 200 करोड़ रुपया कानूनी सहायता और 250 करोड़ न्यायाधीशों के प्रशिक्षण पर खर्च किया जाएगा। 300 करोड़ रुपये न्यायिक अकादमी को दिए जाएंगे। 150 करोड़ रुपये न्यायिक अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने में खर्च किए जाएंगे। 300 करोड़ रुपये अदालतों के प्रबंधको को दिया जाएगा, ताकि अदालती कार्यवाही सुचारू रूप से चलती रही। 450 करोड़ रुपयों का प्रावधान अदालतों के रख-रखाव के लिए किया गया है। यह हो सकते हैं उपाय - न्यायाधीश कानून का ज्ञाता होता है, उन्हें इस इच्छाशक्ति के साथ मुकदमे की सुनवाई शुरू करनी चाहिये कि जल्दी निपटारा करना है और न्याय करना है। यदि वह सख्ती का प्रयोग करें और गवाहों को उपस्थित कराने में लापरवाही बर्दाश्त न करें तो देरी होने की समस्या घट जाएगी। जज सख्त होंगे तो हर पक्ष समय से कोर्ट में पहुंचेगा। - त्वरित न्याय के लिए लोक और समझौता अदालतें अधिक कारगर सिद्ध हो सकती हैं। जरूरत उनके लिए संसाधन बढ़ाने की है। कुछ राज्यों ने प्रयोग किए हैं जो कारगर रहे हैं। -वकीलों की कभी-कभी मामले को निपटाने की मानसिकता होती है कि जितना लंबा चलेगा, उतनी ही कमाई कराता रहेगा। यह मानसिकता बदलने का वक्त है। वकील भी अब उपभोक्ता कानून की परिधि में हैं, उन्हें सोचना चाहिये कि जितनी जल्दी केस सॉल्व कराएंगे, उतनी ही ख्याति बढ़ेगी और नए मुकदमे आएंगे। - पुराने समय में तमाम मामले समाज-इलाके के बड़े बुजुर्ग आपसी सहमति से निपटवा दिया करते थे। यह स्थितियां दोबारा आ जाएं, इसके लिए सरकारी प्रोत्साहन की जरूरत है। - अधिवक्ता मामले में पेश होने से पूर्व अच्छी तरह अध्ययन करके जाएंगे तो सुनवाई गैरजरूरी वजह से स्थगित नहीं होगी। - सामाजिक सोच में बदलाव की भी जरूरत है। अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम और दहेज उत्पीड़न के तमाम मामले सिर्फ आपसी रंजिश निकालने के लिए आते हैं। हर पक्ष को सोचना होगा कि मुकदमा लंबा खिंचता है तो सभी पीड़ित हो जाते हैं। इसके बजाए आपसी सहमति बना ली जानी चाहिये।

Thursday, April 22, 2010

अविभाजित परिवार की सम्पत्ति का स्थानांतरण गलत: इलाहाबाद हाईकोर्ट

बिल्डरों पर पड़ेगा कोर्ट के आदेश का असर
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसले में भू-माफियाओं व बिल्डरों के जमीन व घरों को छद्म तरीके से हथियाने पर लगाम लगाते हुए कहा है कि ऐसे लोग संयुक्त व अविभक्त (अनडिवाइडेड) परिवार की सम्पत्ति पर कब्जा नहीं ले सकते। हाईकोर्ट ने निर्णय दिया है कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को बिना आपसी विभाजन के लेना सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 44 के मूल भावना के प्रतिकूल है। आदेश भू-माफियाओं व बिल्डरों के खिलाफ है, जिसमें अदालत ने कहा है कि अविभाजित परिवार की किसी सम्पत्ति को बिना बंटवारे के खरीदने व उस सम्पत्ति पर शारीरिक कब्जा करने वालों को इस सम्पत्ति को वापस करना होगा। सक्षम न्यायालय इसके लिए उनपर आर्थिक दंड भी लगा सकती है। यह आदेश न्यायमूर्ति संजय मिश्रा ने फर्रूखाबाद निवासी श्रीराम व अन्य की द्वितीय अपील को मंजूर करते हुए दिया है। न्यायालय ने विपक्षी/प्रतिवादी रामकृष्ण व अन्य को आदेश दिया है कि वादी की कब्जा की गयी भूमि को वापस करे। आदेश में कहा गया है कि अगर विपक्षी तीन माह के अन्दर वादी को उसकी सम्पत्ति वापस नहीं करते तो उसे अर्ह हक होगा कि वह तत्काल इस आदेश का निष्पादन निचली अदालत से कराए। वादी श्रीराम व अन्य ने फर्रुखाबाद कोर्ट में उसके मकान व भूमि को खरीदने वालों के खिलाफ वाद दायर कर उनके पक्ष में निष्पादित विक्रय विलेख (सेल डीड) को रद करने की मांग की थी, परन्तु फर्रुखाबाद कोर्ट की दोनों अदालतों ने उसे नामंजूर कर दिया था। इस कारण वादी ने हाईकोर्ट में द्वितीय अपील दायर की थी। हाईकोर्ट में मुद्दा था कि सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 44 के दूसरे क्लाज के अनुसार अगर कोई सम्पत्ति संयुक्त व अविभाजित परिवार की है तो क्या कोई बाहरी व्यक्ति उसके किसी हिस्से को खरीद सकता है। हाईकोर्ट ने माना है कि ऐसी सम्पत्ति को बिना पारिवारिक बंटवारे के स्थानांतरित नहीं किया जा सकता।

आरटीआई पर जवाब से असंतुष्ट हैं तो आनलाइन आइये

यदि कोई आरटीआई आवेदक किसी सरकारी विभाग या मंत्रालय से मांगी गई सूचनाओं से संतुष्ट नहीं है या उसे सूचनाएं नहीं दी गईं हैं तो अब उसे केन्द्रीय सूचना आयोग के दफतरों में भटकने की जरूरत नहीं है। अब वह सीधे सीआईसी में ऑनलाइन द्वितीय अपील या शिकायत कर सकता है। सीआईसी में शिकायत के लिए वेबसाइट http://rti.india.gov.in में दिया गया फार्म भरकर सबमिट पर क्लिक करना होता है। क्लिक करते ही शिकायत या अपील दर्ज हो जाती है।
भारत सरकार ने ई गवरनेंस और शासन में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से केन्द्र के सभी मंत्रालयों से संबंधित सूचनाएं अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध करा दी थी लेकिन इसके साथ ही अब वेबसाइट के माध्यम से केन्द्रीय सूचना आयोग में शिकायत या द्वितीय अपील भी दर्ज की जा सकती है। इसके अतिरिक्त अपील का स्टेटस भी देखा जा सकता है। सीआईसी में द्वितीय अपील दर्ज कराने के लिए वेबसाइट में प्रोविजनल संख्या पूछी जाती है। सरकार की इस पहल को सरकारी कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेयता की ओर एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। सूचनाओं को ऑनलाइन करने के पीछे यह मान्यता है कि देश के सभी नागरिक सरकार को कर देते हैं, इसलिए सभी नागरिकों को समस्त सरकारी विभागों से सूचनाएं प्राप्त करने का अधिकार है। देश में सूचना का अधिकार आने के बाद लगातार मांग की जा रही थी कि सभी सरकारी सूचनाएं ऑनलाइन होनी चाहिए ताकि नागरिकों को सूचनाएं प्राप्त करने में दिक्कतों का सामना न करना पडे़। साथ ही आरटीआई आवेदन एवं अपीलों को ऑनलाइन करने की व्यवस्था की भी जरूरत महसूस की गई जिससे सूचना का अधिकार आसानी से लोगों तक अपनी पहुंच बना सके और आवेदक को सूचना प्राप्त करने में ज्यादा मशक्कत न करनी पड़े।

और भी जानकारी के लिए क्लिक करें, आरटीआई अधिनियम भी यहां है उपलब्ध-
http://rti.india.gov.in/hindi/

निजी कंपनी भी सूचना-अधिकार के दायरे में

एनटीएडीसीएल सूचना-अधिकार के दायरे में: मद्रास उच्च न्यायालय

हाल ही में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप परियोजना से संबंधित एक महत्वपूर्ण फैसले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा न्यू तिरुपुर एरिया डिवेलपमट कार्पोरेशन लिमिटेड, (एनटीएडीसीएल) की याचिका खारिज कर दी गई है। कंपनी ने यह याचिका तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग के उस आदेश के खिलाफ दायर की थी जिसमें आयोग ने कंपनी को मंथन अध्ययन केन्द्र द्वारा मांगी गई जानकारी उपलब्ध करवाने का आदेश दिया था।
एक हजार करोड़ की लागत वाली एनटीएडीसीएल देश की पहली ऐसी जलप्रदाय परियोजना थी जिसे प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत मार्च 2004 में प्रारंभ किया गया था। परियोजना में काफी सारे सार्वजनिक संसाधन लगे हैं जिनमें 50 करोड़ अंशपूजी, 25 करोड़ कर्ज, 50 करोड़ कर्ज भुगतान की गारंटी, 71 करोड़ वाटर शार्टेज फंड शामिल है। परियोजना को वित्तीय दृष्टि से सक्षम बनाने के लिए तमिलनाडु सरकार ने ज्यादातर जोखिम जैसे नदी में पानी की कमी अथवा बिजली आपूर्ति बाधित होने की दशा में भुगतान की गारंटी, भू-अर्जन/ पुनर्वास की जिम्मेदारी, परियोजना की व्यवहार्यता हेतु न्यूनतम वित्तीय सहायता, नीतिगत और वैधानिक सहायता स्वयं अपने सिर ले ली है। सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकारियों को कंपनी में प्रतिनियुक्ति पर भी भेजा। सार्वजनिक क्षेत्र से इतने संसाधन प्राप्त करने के बावजूद भी कंपनी खुद को देश के कानून से परे मानती है।

पृष्ठभूमि
वर्ष 2007 में मंथन अध्ययन केन्द्र ने सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत आवेदन-पत्र भेजकर कंपनी द्वारा तिरुपुर में संचालित जलदाय एवं मल-निकास परियोजना के बारे में कुछ जानकारी मांगी थी। तमिलनाडु सरकार और तिरुपुर नगर निगम के साथ बीओओटी अनुबंध के तहत का काम कर रही कंपनी ने मंथन द्वारा वांछित सामान्य जानकारी देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि सूचना का अधिकार कानून के तहत वह ‘लोक प्राधिकारी’ नहीं है।
कंपनी के इस निर्णय के खिलाफ मंथन ने तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग में अपील की थी। आयोग ने अपने 24 मार्च 2008 के आदेश में कंपनी को लोक प्राधिकारी मानते हुए उसे मंथन अध्ययन केन्द्र द्वारा वांछित सूचना उपलब्ध करवाने का आदेश दिया था। लेकिन कंपनी ने मद्रास उच्च न्यायालय में तुरंत याचिका दायर कर तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग के आदेश को रद्द करने की अपील कर दी। उच्च न्यायालय ने कंपनी, राज्य सरकार, राज्य सूचना आयोग और मंथन अध्ययन केन्द्र की दलील सुनने के बाद 6 अप्रैल 2010 को अपने विस्तृत आदेश में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप से संबंधित संवैधानिक, वित्तीय, संचालन, सार्वजनिक सेवा आदि पर प्रकाश डालते हुए सिद्ध किया कि कंपनी द्वारा समाज को दी जाने वाली सेवा के लिए ऐसी परियोजना सार्वजनिक निगरानी में होनी चाहिए। जस्टिस के. चन्दू के एकल पीठ ने कंपनी की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि राज्य सूचना आयोग के फैसले में कोई असंवैधानिकता या कमी नहीं है।
प्रकरण से संबंधित तथ्य को ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया है कि अपीलार्थी (कंपनी) सूचना का अधिकार कानून की धारा 2 (एच) (डी) (1) के तहत लोक प्राधिकारी है। इसलिए राज्य सूचना आयोग का आदेश एकदम सही है। उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार जब सरकार नगर निकाय की तरह आवश्यक सेवा कार्य खुद करने के बजाय याची कंपनी जैसी किसी कंपनी को पर्याप्त वित्त पोषण (Substantially financed) देकर उसे काम करने की मंजूरी देती है तो कोई भी इसे निजी गतिविधि नहीं मान सकता है। बल्कि ये पूरी तरीके से सार्वजनिक गतिविधि है और इसमें किसी को भी रूचि हो सकती है।
फैसले में उल्लेख है कि कंपनी की आवश्यक गतिविधि जलदाय और मल-निकास है जो नगर निकाय के समान है। ऐसे में कंपनी यह दावा कैसे कर सकती है की वह समुचित सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है। पर्याप्त वित्त के बारे में तो कंपनी ने स्वीकार किया है कि कंपनी के कुल पूँजी निवेश में सरकार का हिस्सा 17.04% है। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है की कंपनी कैसे तर्क करती है कि वह राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है। केवल अंशधारक का Articles of Association दिखाने और यह कहने मात्र से की वह न तो सरकार द्वारा नियंत्रित है और न ही पर्याप्त वित्त पोषित है, कंपनी सूचना का अधिकार कानून के दायरे से बाहर नहीं हो सकती है। फैसले में रेखांकित किया गया है कि पूर्व स्वीकृति के बाद नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) भी कंपनी के हिसाब- किताब का लेखा परीक्षण कर सकता है। ऊपरोक्त के प्रकाश में कंपनी यह तर्क नहीं दे सकती की वह सूचना का अधिकार कानून के तहत “लोक प्राधिकारी” नहीं है। इसके विपरीत कंपनी राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित एवं पर्याप्त वित्त पोषित है।
फैसले में कहा गया है कि जब संविधान ने ऐसी गतिविधियों के लिए स्थानीय निकाय के बारे में आदेश दिया है तथा राज्य सरकार ने जलदाय और मल-निकास जैसे आवश्यक कार्य के लिए नगर निकाय बनाए हैं और जब ये कार्य अन्य व्यावसायिक समूह को सौंपे जाते हैं, ऐसे में यह निश्चित है कि वे व्यावसायिक समूह नगर निकाय की तरह ही हैं। इसलिए हर नागरिक ऐसे समूह की कार्य प्रणाली के बारे में जानने का अधिकार रखता है। कहीं ऐसा न हो की बीओटी काल में ये कंपनियां लोगों का शोषण करती रहें इसलिए इन्हें अपनी गतिविधियों की जानकारी देते रहना चाहिए। उनकी गतिविधियों में पारदर्शिता और लोगों के जानने के अधिकार को सिर्फ इसलिए नहीं रोका जा सकता कि कंपनी ने राज्य सूचना आयोग से ऐसा आग्रह किया है। यह स्पष्ट है कि राज्य के अतिरिक्त भी जब कोई निजी कंपनी सार्वजनिक गतिविधि संचालित करती है तो पीड़ित व्यक्ति के लिए न सिर्फ सामान्य कानून में बल्कि संविधान की धारा 226 के तहत याचिका के माध्यम से भी इसके समाधान का प्रावधान है। लोक प्राधिकारी होना इस बात पर निर्भर करेगा कि उसके द्वारा किया जाना वाला काम लोक सेवा है अथवा नहीं। हमारा मानना है कि मद्रास उच्च न्यायालय का यह आदेश पानी संबंधी सेवा और संसाधन के निजीकरण पर निगरानी कर रहे देशभर के लोग, समूह और संगठन के लिए एक जीत है। आशा है कि यह आदेश निजी कंपनियों द्वारा सार्वजनिक धन और सार्वजनिक संसाधन की लूट पर नजर रखने की प्रक्रिया में काफी उपयोगी साबित होगा।

Friday, July 10, 2009

चोट न होने के बावजूद दुष्कर्म मुमकिन

10 july 2009

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि पीड़ित के अंदरूनी अंगों पर चोट के निशान नहीं होने के बावजूद दुष्कर्म के आरोपी को दोषी ठहराया जा सकता है। अदालत ने कहा कि चोट के निशान नहीं मिलने का यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि यौन संबंध आपसी सहमति से बनाए गए। जस्टिस वी एस सिरपुरकर और आर एम लोढ़ा की पीठ ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा, 'पुष्टि करने वाले साक्ष्य दुष्कर्म के हर मामले में न्यायिक विश्वसनीयता का अहम हिस्सा नहीं हैं। पीड़ित के अंदरूनी अंगों पर चोट के निशान नहीं होने को यौन संबंध के लिए उसकी सहमति के तौर पर नहीं माना जा सकता।'सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने दुष्कर्म के दोषी राजेंद्र उर्फ पप्पू की दलीलें खारिज करते हुए यह व्यवस्था दी। अभियुक्त के वकील ने दलील दी थी कि पीड़ित के अंदरूनी अंगों पर चोट के निशान नहीं पाए जाने से संकेत मिलते हैं कि उसने यौन संबंध के लिए हामी भरी थी। अभियुक्त के वकील ने यह भी दलील दी कि पीड़ित के बयान के अलावा दुष्कर्म के आरोप की किसी अन्य साक्ष्य से पुष्टि नहीं की गई।सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कहा, 'दुष्कर्म के मामले में बिना पुष्टि के भी सिर्फ पीड़ित के बयान पर ही भरोसा किया जा सकता है क्योंकि शायद ही कोई स्वाभिमानी भारतीय महिला किसी व्यक्ति पर अपने साथ दुष्कर्म करने का आरोप लगाएगी।' अदालत ने कहा, 'भारतीय संस्कृति में कोई पीड़ित महिला यौन शोषण को चुपचाप सह तो सकती है लेकिन किसी को गलत तरीके से फंसा नहीं सकती। दुष्कर्म संबंधी कोई भी बयान किसी महिला के लिए बेहद अपमानजनक अनुभव होता है और जब तक वह यौन अपराध का शिकार न हो वह असली अपराधी के अलावा किसी पर दोषारोपण नहीं करेगी।'

पत्नी की अनदेखी उत्पीड़न नहीं

Jul 11, 2009
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक हिंसा के मामले में एक अहम फैसला दिया है। सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि यह साबित होने पर ही कि पति की गैरवाजिब मांगों से आजिज आकर पत्नी ने खुदकुशी या अपनी जान को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, पति को पत्नी के उत्पीड़न का दोषी ठहराया जा सकता है।अदालत ने इसके साथ ही कहा कि लेकिन यह बात पति द्वारा अपनी पत्नी का ख्याल नहीं रखने या उसकी अनदेखी करने पर लागू नहीं होती और इसे भारतीय दंड संहिता [आईपीसी] की धारा 498-ए, 498-बी के तहत पत्नी पर अत्याचार नहीं माना जा सकता। जस्टिस बी।एस. चौहान और मुकुंदकम शर्मा की पीठ ने सऊदी अरब में रहने वाले एनआरआई एस. बेल्थीसर की याचिका पर यह फैसला दिया। बेल्थीसर ने पत्नी की शिकायत पर केरल पुलिस द्वारा उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 498-ए के तहत मामला दर्ज करने को चुनौती दी थी।