Thursday, May 31, 2012

पीढ़ियां गुजर गईं, मुकदमा जारी है...

न्याय में देरी, अन्याय है (Justice delayed is justice denied) न्याय के क्षेत्र में प्रयोग किया जाने वाली लोकप्रिय सूक्ति है। इसका भावार्थ यह है कि यदि किसी को न्याय मिल जाता है किन्तु इसमें बहुत अधिक देरी हो गयी हो तो ऐसे 'न्याय' की कोई सार्थकता नहीं होती। यह सिद्धान्त ही 'द्रुत गति से न्याय के अधिकार' का आधार है। यह मुहावरा न्यायिक सुधार के समर्थकों का प्रमुख हथियार है। वहीं न्यायिक सुधार से आशय किसी देश की न्यायपालिका का राजनीतिक तंत्र की सहायता से पूर्णतः या आंशिक परिवर्तन करना है। न्यायिक सुधार, विधिक सुधार का एक हिस्सा है। विधिक सुधार में न्यायिक सुधार के साथ-साथ कानूनी ढांचे में परिवर्तन, कानूनों में सुधार, कानूनी शिक्षा में सुधार, जनता में विधिक जागरूकता लाना, न्याय का त्वरित एवं सस्ता बनाना आदि भी शामिल हैं। न्यायिक सुधार का लक्ष्य न्यायालयों में सुधार, वकालत मे परिवर्तन, दस्तावेजों का रखरखाव आदि सम्मिलित है। न्यायिक संस्था और विधि का शासन आधुनिक सभ्यता और लोकतांत्रिक शासन की आवश्यकता है। दुर्भाग्य से महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर अपना देश न्यायिक मोर्चे पर सब-कुछ ठीक नहीं रख पा रहा। मुकदमों की संख्या बढ़ रही है, जनसंख्या की तुलना में जजों के पद कम हैं और उनमें से भी तमाम रिक्त पड़े हैं। हाल यह है कि अपने पिता के जीवनकाल में मुकदमा लड़ने का दायित्व संभालने वाला बच्चा, पहले जवान होता है और फिर बूढ़ा लेकिन मुकदमा जारी रहता है। कभी-कभी तो यही मुकदमा कई पीढ़ियों तक भी अंजाम तक नहीं पहुंचता। लंबित मुकदमे ख़ुद सरकारी आंकड़ो के मुताबिक देश की अदालतों के समक्ष 2 करोड़ 60 लाख से ज़्यादा मुक़दमे लंबित हैं। इनमें से कुछ मामले तो आधी सदी से भी ज़्यादा पुराने हैं। सरकार की लापरवाही और उदासीनता का ही नतीजा है कि आज की तारीख में सर्वोच्च न्यायालय में हजारों याचिकाएं लंबित हैं। उच्च न्यायालयों में भी यही हाल है। यहां पांच लाख 30 हजार याचिकाएं तो वह हैं जो 10 से ज्यादा वर्षों से लंबित हैं। निचली अदालतों में तो स्थिति और भी बेकाबू है। वहां तो लंबित मामलों की संख्या करोड़ों में है। अकेले दिल्ली के सत्र न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या 18786 है, जिसमें अन्य अधीनस्थ अदालतों की संख्या शामिल नहीं है। लंबित मामलों की स्थिति इतनी खराब है कि सबसे नए बने राज्यों में एक झारखण्ड में निचली अदालतों में आरोपी की पुलिस रिपोर्ट न सौंपने की वजह से 75 हजार मामलों पर अदालती कार्रवाई आगे नहीं बढ़ पा रही। यहां ढाई लाख से अधिक लंबित मामले हैं। देश में सर्वाधिक मुकदमे मोटर दुर्घटना और औद्योगिक विवादों से संबंधित हैं। देश में इन दोनों प्रकार के मुकदमों के निपटारे के लिए न्यायालयो की स्थापना करने का काम राज्य सरकारों का है लेकिन राज्य सरकारों ने इस के लिए पर्याप्त संख्या मे न्यायालय ही स्थापित नहीं किए हैं। इस तरह के अनेक न्यायालयों में न्यायाधिशों की नियुक्ति समय से नहीं की जाती है और वे लम्बे समय तक खाली पड़े रहते हैं। नतीजा यह होता है कि लंबित मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती जाती है। लंबित मुकदमों का आंकड़ा सर्वोच्च न्यायालय में कुल 56,304 मुकदमे लंबित हैं। इस न्यायालय में एक साल तक पुराने मुकदमों की कुल संख्या 19,968 हैं। अदालत के अपने विश्लेषण के मुताबिक इस लिहाज से पहले से लंबित मुकदमों की तादाद 36,336 हैं। देश के 21 उच्च न्यायालयों के आंकड़े दर्शाते हैं कि उनके पास 43,50,868 मुकदमे लंबित हैं। इनमें 34,34,666 दीवानी मामले और 9,16,202 फौजदारी मामले शामिल हैं। इन आंकड़ों का बढिय़ा पहलू यह है कि कुछ उच्च न्यायालयों में जितने नये मामले आए हैं, उनसे कहीं ज्यादा संख्या में पुराने मुकदमों का निपटारा किया गया है। इस वजह से लंबी अवधि के दौरान लंबित मुकदमों की संख्या घटेगी। जिन उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या घट रही है, उनमें पटना (-3.80 फीसदी), दिल्ली (-1.78 फीसदी), गुवाहाटी (-1.42 फीसदी), गुजरात (-0.76 फीसदी) और छत्तीसगढ़ (-0.50 फीसदी) शामिल हैं। बाकी बचे उच्च न्यायालयों में जितने पुराने मुकदमों का निपटारा किया गया, उनसे कहीं ज्यादा संख्या में नये मामले आए। ऐसे अदालतों में कर्नाटक (+5.06 फीसदी), आंध्र प्रदेश (+2.92 फीसदी), मद्रास (+2.37 फीसदी) और सिक्किम (+12.96 फीसदी) प्रमुख हैं। राज्यों के अधीनस्थ न्यायालयों में भी निपटाए गए पुराने मुकदमों की संख्या और नये मामलों के आंकड़े मिलेजुले हैं। इन न्यायालयों में कुल 2,76,70,417 मुकदमे लंबित हैं, जिनमें से 78,34,130 दीवानी और 1,98,36,287 फौजदारी मामले हैं। खुशी की बात है कि कुछ राज्यों की अधीनस्थ अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या कम (नये मुकदमों की तुलना में ज्यादा पुराने मुकदमों का निपटारा) हो रही है। महाराष्ट्र में हालांकि 194 न्यायाधीशों की कमी है, लेकिन वहां लंबित मुकदमों की संख्या में 1.72 फीसदी की गिरावट आई है। इसी तरह दिल्ली में 5.60 फीसदी, मिजोरम में 14.54 फीसदी, तमिलनाडु में 1.26 फीसदी और चंडीगढ़ में 2.68 फीसदी लंबित मुकदमे घटे हैं।देश के सभी जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या 0.44 फीसदी बढ़ी है। न्याय पाना मूल अधिकार सुप्रीम कोर्ट ने न्याय पाने के अधिकार को मूल अधिकार बताते हुए अदालत जाने के अधिकार को इसका हिस्सा माना है। जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर 31 जनवरी 2012 को दिए निर्णय में शीर्ष अदालत ने कहा है कि भ्रष्टाचार मुक्त समाज में रहना आम जनता का मूल अधिकार है इसलिए उसे हासिल करने के लिए अदालत में जाना और न्याय प्राप्त करना भी उस मूल अधिकार का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट के सामने पहला प्रश्न यह था कि भ्रष्टाचार के मामले में क्या आम आदमी को अदालत जाने का अधिकार है? सरकार की ओर से इसका विरोध किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में सरकार के तर्क को नकारते हुए शिवनंदन पासवान बनाम बिहार राज्य के मुकदमे का हवाला देते हुए कहा कि भ्रष्ट लोकसेवकों के खिलाफ मुकदमा दायर करना न्याय पाने के संवैधानिक अधिकार का हिस्सा है। जब कोई आम आदमी किसी भ्रष्ट लोकसेवक के खिलाफ मुकदमा दायर करना चाहता है तो उसे केवल किसी के व्यक्तिगत राग-द्वेष से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। इसको इस तरह से समझने की जरूरत है कि इस कार्यवाही के माध्यम से समाज में कानून के शासन को बनाए रखने की कोशिश की जाती है और इस तरह के प्रयासों को हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार निरोधी कानून की धारा 1988 की धारा 19 में कहा गया है कि लोकसेवकों के खिलाफ मुकदमा दायर करने से पहले सरकार की अनुमति आवश्यक है। अदालत ने अपने निर्णय में अटार्नी जनरल द्वारा रखे गए तथ्यों का जिक्र करते हुए कहा कि पिछले एक वर्ष में लोकसेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में कार्रवाई की अनुमति के 319 आवेदन किए गए, जिनमें से 126 पर अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका है। कोर्ट ने कहा कि अदालत को यह तय करना जरूरी है कि वह कानूनी उपबंधों को आंख बंद करके मान ले या न्याय और कानून के शासन का सम्मान करते हुए इसमें सकारात्मक दखलंदाजी करे ताकि आम आदमी का राज्य से भरोसा न उठे। न्यायाधीशों की संख्या बेहद कम देश में न्यायाधीशों की संख्या देश की आबादी और लंबित मुकदमों के अनुपात में बहुत कम है। इस बात का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जहां अमेरिका में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर 111 न्यायाधीश नियुक्त हैं वहीं भारत मे इन की संख्या केवल 11 है। इस तरह हम अमेरिका के मुकाबले केवल दस प्रतिशत न्यायाधीशों से काम चला रहे हैं। विधि आयोग ने 31 जुलाई 1987 को दी अपनी 120वीं रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि दस लाख की आबादी पर न्यायाधीशों की संख्या 10.5 से बढ़ाकर 50 की जानी चाहिए। उच्च न्यायालयों में जजों की संख्या के लिए प्रत्येक तीन वर्ष में पुनरावलोकन किया जाता है और मुकदमों के दर्ज होने और निपटारा किए जाने की संख्या के आधार पर समीक्षा की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऑल इंडिया न्यायाधीश एसोसिएशन व अन्य बनाम भारत संघ व अन्य के प्रकरण में पारित निर्णय में केन्द्र और राज्यों को निर्देश दिया था कि वे प्रति दस लाख आबादी पर न्यायाधीशों के 10.5 से 13 तक के तत्कालीन अनुपात को शीघ्रता से 50 तक बढ़ाएं। इसके बाद केन्द्र ने सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना की कि इस निर्देश को कम से कम केंद्र सरकार की जिम्मेदारी को कार्यभार और मुकदमों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया जाए। कहा जाता है कि मुकदमों के निपटारे की गति बढ़ानी चाहिए। लेकिन बिना न्यायाधीशों और न्यायालयों की संख्या में वृद्धि किए यह किसी प्रकार से संभव नहीं है। एक मुकदमे में सुनवाई सिर्फ न्यायाधीश कर सकता है। इस के लिए उसे पूरी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। जिस में समय लगना स्वाभाविक है। गवाहों के बयान दर्ज करने की गति को तो किसी प्रकार से नहीं बढ़ाया जा सकता है। इस तरह मुकदमों के निपटारे के लिए सारा दबाव न्यायाधीशों और वकीलों पर बनाया जाता है और उस के खराब नतीजे सामने आ रहे हैं। हड़बड़ी में मुकदमों के निर्णय किए जाते हैं जो गलत होते हैं और उनसे हमारी न्याय व्यवस्था की साख गिरती है। विभिन्न अदालतों में जजों के रिक्त पद देश भर के 21 उच्च न्यायालयों में 279 पद खाली हैं। इन न्यायालयों में मंजूर किए गए पदों की कुल संख्या 895 है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 160 न्यायाधीश होने चाहिए लेकिन वहां महज 69 न्यायाधीश ही हैं। केवल हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में 11 न्यायाधीशों का पूरा कोटा है। सिक्किम उच्च न्यायालय में केवल एक न्यायाधीश है, जबकि वहां तीन न्यायाधीश होने चाहिए। सौभाग्यवश ऐसे मुकदमों की संख्या केवल 60 है और एक साल में केवल 30 ऐसे नये मुकदमे लंबित हुए हैं जिन्हें एकल न्यायाधीश को निपटाना है लेकिन गुजरात, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालयों की स्थिति ज्यादा खराब है। गुजरात उच्च न्यायालय में 42 न्यायाधीश होने चाहिए, जहां 20 रिक्तियां हैं, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में कुल 68 न्यायाधीश होने चाहिए, लेकिन वहां केवल 20 न्यायाधीश हैं। इसी तरह कलकत्ता उच्च न्यायालय में महज 17 न्यायाधीश हैं, जबकि वहां 58 न्यायाधीश होने चाहिए और राजस्थान उच्च न्यायालय में 40 न्यायाधीशों की जरूरत है, जबकि वहां सिर्फ 13 न्यायाधीशों से काम चल रहा है। जिला और अधीनस्थ अदालतों के आंकड़े भी समान रूप से चिंताजनक हैं। इन अदालतों में कुल 18,008 पद मंजूर हैं, जबकि 3,634 पद खाली पड़े हैं। गुजरात में 816 न्यायाधीशों की और जरूरत है, अभी वहां केवल 863 न्यायाधीश हैं। बिहार में 681 न्यायाधीश हैं, जबकि वहां 1,666 न्यायाधीशों की दरकरार है। उत्तर प्रदेश में कुल 1,897 न्यायाधीश कार्यरत हैं और वहां 207 रिक्तियां हैं। पश्चिम बंगाल में कुल 146 न्यायाधीशों की जरूरत है। ऐसे राज्य एवं केंद्रशासित प्रदेशों की संख्या केवल दो हैं, जहां जरूरत के मुताबिक पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश हैं-अरुणाचल प्रदेश और चंडीगढ़। दस वर्षों में एक लाख जजों की जरूरत सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में 4,30,000 लोग जेलों में बंद हैं, जिन में से तीन लाख केवल इसलिए बंद हैं कि उनके मुकदमे का निर्णय होना है। 2007 में यह संख्या केवल 2,50,727 थी। केवल तीन वर्षों में विचाराधीन बंदियों की संख्या में 50,000 का इजाफा हो गया। इन विचाराधीन बंदियों में से एक तिहाई से अधिक 88,312 अनपढ़ हैं, इन में माध्य़मिक स्तर से कम शिक्षित बंदियों की संख्या जोड़ दी जाए तो यह संख्या विचाराधीन बंदियों की कुल संख्या का 80% (1,96,954) हो जाएगी। 2007 में विचाराधीन बंदियों की कुल संख्या 2,50,727 थी जिसमें से 1891 पांच वर्ष से भी अधिक समय से बंद थे। इनमें ऐसे बंदी भी सम्मिलित हैं कि जिन पर चल रहे मुकदमे में जितनी सजा दी जा सकती है, उससे कहीं अधिक वे फैसले के इन्तजार में जेल में रह चुके हैं। 52 हजार से अधिक बंदी ऐसे हैं जिन पर हत्या करने का आरोप है। मुकदमों की बढ़ती संख्या से अनुमान लगाया जा रहा है कि आगामी 10 वर्ष में देश में 10 लाख जजों की आवश्यकता होगी। पांच हजार करोड़ का आवंटन 13 वें वित्त आयोग ने देश के विभिन्न राज्यों की अदालतों में वर्षों से लंबित मामलों के निष्पादन के लिए 5000 करोड़ रुपयों का आवंटन किया है जो 2010 से 2015 के दरम्यान खर्च होना है। इस राशि का इस्तेमाल सुबह और शाम चलने वाली अदालतों के अलावा स्पेशल अदालतों में चल रहे लंबित केसों के निपटारे के लिए किया जाना है। एक अनुमान के अनुसार इस राशि से लंबित केसों का निपटारा 5 सालों के दौरान किया जा सकेगा। इसके अलावा वैकल्पिक समस्या के समाधान के लिए 600 करोड़ रुपया दिया गया है। 100 करोड़ रुपयों का आवंटन लोक अदालतों के लिए किया गया है। 150 करोड़ रुपया वकीलों और विभिन्न न्यायालयों में काम करने वाले अधिकारियों को मुहैया कराया गया है। 200 करोड़ रुपया कानूनी सहायता और 250 करोड़ न्यायाधीशों के प्रशिक्षण पर खर्च किया जाएगा। 300 करोड़ रुपये न्यायिक अकादमी को दिए जाएंगे। 150 करोड़ रुपये न्यायिक अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने में खर्च किए जाएंगे। 300 करोड़ रुपये अदालतों के प्रबंधको को दिया जाएगा, ताकि अदालती कार्यवाही सुचारू रूप से चलती रही। 450 करोड़ रुपयों का प्रावधान अदालतों के रख-रखाव के लिए किया गया है। यह हो सकते हैं उपाय - न्यायाधीश कानून का ज्ञाता होता है, उन्हें इस इच्छाशक्ति के साथ मुकदमे की सुनवाई शुरू करनी चाहिये कि जल्दी निपटारा करना है और न्याय करना है। यदि वह सख्ती का प्रयोग करें और गवाहों को उपस्थित कराने में लापरवाही बर्दाश्त न करें तो देरी होने की समस्या घट जाएगी। जज सख्त होंगे तो हर पक्ष समय से कोर्ट में पहुंचेगा। - त्वरित न्याय के लिए लोक और समझौता अदालतें अधिक कारगर सिद्ध हो सकती हैं। जरूरत उनके लिए संसाधन बढ़ाने की है। कुछ राज्यों ने प्रयोग किए हैं जो कारगर रहे हैं। -वकीलों की कभी-कभी मामले को निपटाने की मानसिकता होती है कि जितना लंबा चलेगा, उतनी ही कमाई कराता रहेगा। यह मानसिकता बदलने का वक्त है। वकील भी अब उपभोक्ता कानून की परिधि में हैं, उन्हें सोचना चाहिये कि जितनी जल्दी केस सॉल्व कराएंगे, उतनी ही ख्याति बढ़ेगी और नए मुकदमे आएंगे। - पुराने समय में तमाम मामले समाज-इलाके के बड़े बुजुर्ग आपसी सहमति से निपटवा दिया करते थे। यह स्थितियां दोबारा आ जाएं, इसके लिए सरकारी प्रोत्साहन की जरूरत है। - अधिवक्ता मामले में पेश होने से पूर्व अच्छी तरह अध्ययन करके जाएंगे तो सुनवाई गैरजरूरी वजह से स्थगित नहीं होगी। - सामाजिक सोच में बदलाव की भी जरूरत है। अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम और दहेज उत्पीड़न के तमाम मामले सिर्फ आपसी रंजिश निकालने के लिए आते हैं। हर पक्ष को सोचना होगा कि मुकदमा लंबा खिंचता है तो सभी पीड़ित हो जाते हैं। इसके बजाए आपसी सहमति बना ली जानी चाहिये।

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