Thursday, May 31, 2012
पीढ़ियां गुजर गईं, मुकदमा जारी है...
Thursday, April 22, 2010
अविभाजित परिवार की सम्पत्ति का स्थानांतरण गलत: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसले में भू-माफियाओं व बिल्डरों के जमीन व घरों को छद्म तरीके से हथियाने पर लगाम लगाते हुए कहा है कि ऐसे लोग संयुक्त व अविभक्त (अनडिवाइडेड) परिवार की सम्पत्ति पर कब्जा नहीं ले सकते। हाईकोर्ट ने निर्णय दिया है कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को बिना आपसी विभाजन के लेना सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 44 के मूल भावना के प्रतिकूल है। आदेश भू-माफियाओं व बिल्डरों के खिलाफ है, जिसमें अदालत ने कहा है कि अविभाजित परिवार की किसी सम्पत्ति को बिना बंटवारे के खरीदने व उस सम्पत्ति पर शारीरिक कब्जा करने वालों को इस सम्पत्ति को वापस करना होगा। सक्षम न्यायालय इसके लिए उनपर आर्थिक दंड भी लगा सकती है। यह आदेश न्यायमूर्ति संजय मिश्रा ने फर्रूखाबाद निवासी श्रीराम व अन्य की द्वितीय अपील को मंजूर करते हुए दिया है। न्यायालय ने विपक्षी/प्रतिवादी रामकृष्ण व अन्य को आदेश दिया है कि वादी की कब्जा की गयी भूमि को वापस करे। आदेश में कहा गया है कि अगर विपक्षी तीन माह के अन्दर वादी को उसकी सम्पत्ति वापस नहीं करते तो उसे अर्ह हक होगा कि वह तत्काल इस आदेश का निष्पादन निचली अदालत से कराए। वादी श्रीराम व अन्य ने फर्रुखाबाद कोर्ट में उसके मकान व भूमि को खरीदने वालों के खिलाफ वाद दायर कर उनके पक्ष में निष्पादित विक्रय विलेख (सेल डीड) को रद करने की मांग की थी, परन्तु फर्रुखाबाद कोर्ट की दोनों अदालतों ने उसे नामंजूर कर दिया था। इस कारण वादी ने हाईकोर्ट में द्वितीय अपील दायर की थी। हाईकोर्ट में मुद्दा था कि सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 44 के दूसरे क्लाज के अनुसार अगर कोई सम्पत्ति संयुक्त व अविभाजित परिवार की है तो क्या कोई बाहरी व्यक्ति उसके किसी हिस्से को खरीद सकता है। हाईकोर्ट ने माना है कि ऐसी सम्पत्ति को बिना पारिवारिक बंटवारे के स्थानांतरित नहीं किया जा सकता।
आरटीआई पर जवाब से असंतुष्ट हैं तो आनलाइन आइये
भारत सरकार ने ई गवरनेंस और शासन में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से केन्द्र के सभी मंत्रालयों से संबंधित सूचनाएं अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध करा दी थी लेकिन इसके साथ ही अब वेबसाइट के माध्यम से केन्द्रीय सूचना आयोग में शिकायत या द्वितीय अपील भी दर्ज की जा सकती है। इसके अतिरिक्त अपील का स्टेटस भी देखा जा सकता है। सीआईसी में द्वितीय अपील दर्ज कराने के लिए वेबसाइट में प्रोविजनल संख्या पूछी जाती है। सरकार की इस पहल को सरकारी कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेयता की ओर एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। सूचनाओं को ऑनलाइन करने के पीछे यह मान्यता है कि देश के सभी नागरिक सरकार को कर देते हैं, इसलिए सभी नागरिकों को समस्त सरकारी विभागों से सूचनाएं प्राप्त करने का अधिकार है। देश में सूचना का अधिकार आने के बाद लगातार मांग की जा रही थी कि सभी सरकारी सूचनाएं ऑनलाइन होनी चाहिए ताकि नागरिकों को सूचनाएं प्राप्त करने में दिक्कतों का सामना न करना पडे़। साथ ही आरटीआई आवेदन एवं अपीलों को ऑनलाइन करने की व्यवस्था की भी जरूरत महसूस की गई जिससे सूचना का अधिकार आसानी से लोगों तक अपनी पहुंच बना सके और आवेदक को सूचना प्राप्त करने में ज्यादा मशक्कत न करनी पड़े।
और भी जानकारी के लिए क्लिक करें, आरटीआई अधिनियम भी यहां है उपलब्ध-
http://rti.india.gov.in/hindi/
निजी कंपनी भी सूचना-अधिकार के दायरे में
हाल ही में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप परियोजना से संबंधित एक महत्वपूर्ण फैसले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा न्यू तिरुपुर एरिया डिवेलपमट कार्पोरेशन लिमिटेड, (एनटीएडीसीएल) की याचिका खारिज कर दी गई है। कंपनी ने यह याचिका तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग के उस आदेश के खिलाफ दायर की थी जिसमें आयोग ने कंपनी को मंथन अध्ययन केन्द्र द्वारा मांगी गई जानकारी उपलब्ध करवाने का आदेश दिया था।
एक हजार करोड़ की लागत वाली एनटीएडीसीएल देश की पहली ऐसी जलप्रदाय परियोजना थी जिसे प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत मार्च 2004 में प्रारंभ किया गया था। परियोजना में काफी सारे सार्वजनिक संसाधन लगे हैं जिनमें 50 करोड़ अंशपूजी, 25 करोड़ कर्ज, 50 करोड़ कर्ज भुगतान की गारंटी, 71 करोड़ वाटर शार्टेज फंड शामिल है। परियोजना को वित्तीय दृष्टि से सक्षम बनाने के लिए तमिलनाडु सरकार ने ज्यादातर जोखिम जैसे नदी में पानी की कमी अथवा बिजली आपूर्ति बाधित होने की दशा में भुगतान की गारंटी, भू-अर्जन/ पुनर्वास की जिम्मेदारी, परियोजना की व्यवहार्यता हेतु न्यूनतम वित्तीय सहायता, नीतिगत और वैधानिक सहायता स्वयं अपने सिर ले ली है। सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकारियों को कंपनी में प्रतिनियुक्ति पर भी भेजा। सार्वजनिक क्षेत्र से इतने संसाधन प्राप्त करने के बावजूद भी कंपनी खुद को देश के कानून से परे मानती है।
पृष्ठभूमि
वर्ष 2007 में मंथन अध्ययन केन्द्र ने सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत आवेदन-पत्र भेजकर कंपनी द्वारा तिरुपुर में संचालित जलदाय एवं मल-निकास परियोजना के बारे में कुछ जानकारी मांगी थी। तमिलनाडु सरकार और तिरुपुर नगर निगम के साथ बीओओटी अनुबंध के तहत का काम कर रही कंपनी ने मंथन द्वारा वांछित सामान्य जानकारी देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि सूचना का अधिकार कानून के तहत वह ‘लोक प्राधिकारी’ नहीं है।
कंपनी के इस निर्णय के खिलाफ मंथन ने तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग में अपील की थी। आयोग ने अपने 24 मार्च 2008 के आदेश में कंपनी को लोक प्राधिकारी मानते हुए उसे मंथन अध्ययन केन्द्र द्वारा वांछित सूचना उपलब्ध करवाने का आदेश दिया था। लेकिन कंपनी ने मद्रास उच्च न्यायालय में तुरंत याचिका दायर कर तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग के आदेश को रद्द करने की अपील कर दी। उच्च न्यायालय ने कंपनी, राज्य सरकार, राज्य सूचना आयोग और मंथन अध्ययन केन्द्र की दलील सुनने के बाद 6 अप्रैल 2010 को अपने विस्तृत आदेश में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप से संबंधित संवैधानिक, वित्तीय, संचालन, सार्वजनिक सेवा आदि पर प्रकाश डालते हुए सिद्ध किया कि कंपनी द्वारा समाज को दी जाने वाली सेवा के लिए ऐसी परियोजना सार्वजनिक निगरानी में होनी चाहिए। जस्टिस के. चन्दू के एकल पीठ ने कंपनी की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि राज्य सूचना आयोग के फैसले में कोई असंवैधानिकता या कमी नहीं है।
प्रकरण से संबंधित तथ्य को ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया है कि अपीलार्थी (कंपनी) सूचना का अधिकार कानून की धारा 2 (एच) (डी) (1) के तहत लोक प्राधिकारी है। इसलिए राज्य सूचना आयोग का आदेश एकदम सही है। उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार जब सरकार नगर निकाय की तरह आवश्यक सेवा कार्य खुद करने के बजाय याची कंपनी जैसी किसी कंपनी को पर्याप्त वित्त पोषण (Substantially financed) देकर उसे काम करने की मंजूरी देती है तो कोई भी इसे निजी गतिविधि नहीं मान सकता है। बल्कि ये पूरी तरीके से सार्वजनिक गतिविधि है और इसमें किसी को भी रूचि हो सकती है।
फैसले में उल्लेख है कि कंपनी की आवश्यक गतिविधि जलदाय और मल-निकास है जो नगर निकाय के समान है। ऐसे में कंपनी यह दावा कैसे कर सकती है की वह समुचित सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है। पर्याप्त वित्त के बारे में तो कंपनी ने स्वीकार किया है कि कंपनी के कुल पूँजी निवेश में सरकार का हिस्सा 17.04% है। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है की कंपनी कैसे तर्क करती है कि वह राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है। केवल अंशधारक का Articles of Association दिखाने और यह कहने मात्र से की वह न तो सरकार द्वारा नियंत्रित है और न ही पर्याप्त वित्त पोषित है, कंपनी सूचना का अधिकार कानून के दायरे से बाहर नहीं हो सकती है। फैसले में रेखांकित किया गया है कि पूर्व स्वीकृति के बाद नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) भी कंपनी के हिसाब- किताब का लेखा परीक्षण कर सकता है। ऊपरोक्त के प्रकाश में कंपनी यह तर्क नहीं दे सकती की वह सूचना का अधिकार कानून के तहत “लोक प्राधिकारी” नहीं है। इसके विपरीत कंपनी राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित एवं पर्याप्त वित्त पोषित है।
फैसले में कहा गया है कि जब संविधान ने ऐसी गतिविधियों के लिए स्थानीय निकाय के बारे में आदेश दिया है तथा राज्य सरकार ने जलदाय और मल-निकास जैसे आवश्यक कार्य के लिए नगर निकाय बनाए हैं और जब ये कार्य अन्य व्यावसायिक समूह को सौंपे जाते हैं, ऐसे में यह निश्चित है कि वे व्यावसायिक समूह नगर निकाय की तरह ही हैं। इसलिए हर नागरिक ऐसे समूह की कार्य प्रणाली के बारे में जानने का अधिकार रखता है। कहीं ऐसा न हो की बीओटी काल में ये कंपनियां लोगों का शोषण करती रहें इसलिए इन्हें अपनी गतिविधियों की जानकारी देते रहना चाहिए। उनकी गतिविधियों में पारदर्शिता और लोगों के जानने के अधिकार को सिर्फ इसलिए नहीं रोका जा सकता कि कंपनी ने राज्य सूचना आयोग से ऐसा आग्रह किया है। यह स्पष्ट है कि राज्य के अतिरिक्त भी जब कोई निजी कंपनी सार्वजनिक गतिविधि संचालित करती है तो पीड़ित व्यक्ति के लिए न सिर्फ सामान्य कानून में बल्कि संविधान की धारा 226 के तहत याचिका के माध्यम से भी इसके समाधान का प्रावधान है। लोक प्राधिकारी होना इस बात पर निर्भर करेगा कि उसके द्वारा किया जाना वाला काम लोक सेवा है अथवा नहीं। हमारा मानना है कि मद्रास उच्च न्यायालय का यह आदेश पानी संबंधी सेवा और संसाधन के निजीकरण पर निगरानी कर रहे देशभर के लोग, समूह और संगठन के लिए एक जीत है। आशा है कि यह आदेश निजी कंपनियों द्वारा सार्वजनिक धन और सार्वजनिक संसाधन की लूट पर नजर रखने की प्रक्रिया में काफी उपयोगी साबित होगा।
Friday, July 10, 2009
चोट न होने के बावजूद दुष्कर्म मुमकिन
10 july 2009
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि पीड़ित के अंदरूनी अंगों पर चोट के निशान नहीं होने के बावजूद दुष्कर्म के आरोपी को दोषी ठहराया जा सकता है। अदालत ने कहा कि चोट के निशान नहीं मिलने का यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि यौन संबंध आपसी सहमति से बनाए गए। जस्टिस वी एस सिरपुरकर और आर एम लोढ़ा की पीठ ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा, 'पुष्टि करने वाले साक्ष्य दुष्कर्म के हर मामले में न्यायिक विश्वसनीयता का अहम हिस्सा नहीं हैं। पीड़ित के अंदरूनी अंगों पर चोट के निशान नहीं होने को यौन संबंध के लिए उसकी सहमति के तौर पर नहीं माना जा सकता।'सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने दुष्कर्म के दोषी राजेंद्र उर्फ पप्पू की दलीलें खारिज करते हुए यह व्यवस्था दी। अभियुक्त के वकील ने दलील दी थी कि पीड़ित के अंदरूनी अंगों पर चोट के निशान नहीं पाए जाने से संकेत मिलते हैं कि उसने यौन संबंध के लिए हामी भरी थी। अभियुक्त के वकील ने यह भी दलील दी कि पीड़ित के बयान के अलावा दुष्कर्म के आरोप की किसी अन्य साक्ष्य से पुष्टि नहीं की गई।सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कहा, 'दुष्कर्म के मामले में बिना पुष्टि के भी सिर्फ पीड़ित के बयान पर ही भरोसा किया जा सकता है क्योंकि शायद ही कोई स्वाभिमानी भारतीय महिला किसी व्यक्ति पर अपने साथ दुष्कर्म करने का आरोप लगाएगी।' अदालत ने कहा, 'भारतीय संस्कृति में कोई पीड़ित महिला यौन शोषण को चुपचाप सह तो सकती है लेकिन किसी को गलत तरीके से फंसा नहीं सकती। दुष्कर्म संबंधी कोई भी बयान किसी महिला के लिए बेहद अपमानजनक अनुभव होता है और जब तक वह यौन अपराध का शिकार न हो वह असली अपराधी के अलावा किसी पर दोषारोपण नहीं करेगी।'
पत्नी की अनदेखी उत्पीड़न नहीं
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने वैवाहिक हिंसा के मामले में एक अहम फैसला दिया है। सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि यह साबित होने पर ही कि पति की गैरवाजिब मांगों से आजिज आकर पत्नी ने खुदकुशी या अपनी जान को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, पति को पत्नी के उत्पीड़न का दोषी ठहराया जा सकता है।अदालत ने इसके साथ ही कहा कि लेकिन यह बात पति द्वारा अपनी पत्नी का ख्याल नहीं रखने या उसकी अनदेखी करने पर लागू नहीं होती और इसे भारतीय दंड संहिता [आईपीसी] की धारा 498-ए, 498-बी के तहत पत्नी पर अत्याचार नहीं माना जा सकता। जस्टिस बी।एस. चौहान और मुकुंदकम शर्मा की पीठ ने सऊदी अरब में रहने वाले एनआरआई एस. बेल्थीसर की याचिका पर यह फैसला दिया। बेल्थीसर ने पत्नी की शिकायत पर केरल पुलिस द्वारा उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 498-ए के तहत मामला दर्ज करने को चुनौती दी थी।